ग़ज़ल
दे रहे लफ्ज़ यूँ खलल शायद !
हो रही हो कोई ग़ज़ल शायद !
फूट निकले हैं आज झरने-से,
अश्क़ पानी में गए ढल शायद !
यूँ लगे जैसे आज कुदरत से,
आदमी ने किया है छल शायद !
भूख , तालीम और बेकारी,
खोज लेती है अपना हल शायद !
छींक अख़बार में छपी उनकी,
जुर्म ने फिर किया है छल शायद !
बात अखलाक की सभी करते,
कोई करता नहीं अमल शायद !
आज रोते नहीं बना उससे,
दर्द उसका गया उबल शायद !
०००
—- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।