ग़ज़ल
तलब उठी है, फिर खून से नहाने की।
होने लगी है तैयारी, नए बहाने की।।
जहर मजहब का घोलने की सुगबुगाहट है।
साजिशें रच रहे हैं, बस्तियां जलाने की।।
रहनुमा बनते ही वादों को दर किनार किया।
अब तक आयी न याद, बेबसी मिटाने की।।
बंद गोदामों में सड़ता है खाद्यान्न फिर भी।
काफी तादात है, मोहताज दाने-दाने की।।
आग में घी का काम कर रहीं सोशल साइट।
खूब परोस रहीं खबरें, बरगलाने की।।
मिली फुर्सत तो फिर से चूमने लगे चौखट।
घड़ी नजदीक लग रही, चुनाव आने की।।
दिखा रहे हैं लच्छेदार ख्वाब फिर से ‘विपिन’
होड़ मची है फिर अवाम को लुभाने की।।
-विपिन शर्मा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मो-9719046900