ग़ज़ल
ग़ज़ल
ले इल्ज़ाम सर अपने मसरूफ हो गया
ज़माने की नजर में जो था बेकार निकला
हर राह परेशां हो गई मोड़ से पहले
वापसी के लिए जो तलबगार निकला
सरे बाज़ार भी कबूल लेगा मोहब्बत
दिल चुराने का जो गुनहगार निकला
बुन गया हूँ खुद को पिरोते पिरोते
कि सुलझाना मुझे ज़रा दुश्वार निकला
बारिशों से सौदा था आँखों का आज
भटकी हुई नाव का वही कगार निकला
काजल सजाया है ख्वाब को जला कर
आँखों में भरा फिर भी एतबार निकला
वो शख्स ख़ामोशी में कहा करता है
ज़रा क़रीब हुआ तो शोर बेशुमार निकला
रवायतों में रिहाइश भाती नहीं हमें
उड़ानों से इश्क़ क्योंकि बेइख़्तियार निकला ।
@shaily vij