ग़ज़ल
2122 2122 212
आशिकों का क्या ज़माना आ गया।
दर्द सहकर मुस्कुराना आ गया।
वस्ल की उम्मीद में दूरी बढ़ी
सेज काँटों की बिछाना आ गया।
दे भरोसा प्यार में सौदा किया
प्यार किश्तों में चुकाना आ गया।
यार हम से बेवफ़ाई कर गया
ज़ख्म पर मलहम लगाना आ गया।
हसरतें दिल की जला दीं आपने
मोम सा ख़ुद को गलाना आ गया।
अश्क आँखों को मिले सौगात में
वार सह दिल को रुलाना आ गया।
लाइलाज़े इश्क में तड़पा किए
चोट खा खुद को मिटाना आ गया।
याद में आकर सताते रात-दिन
ख़्वाब रातों को सजाना आ गया।
क्या शिकायत आपसे ‘रजनी’ करे
गैर की बस्ती बसाना आ गया।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका- साहित्य धरोहर