ग़ज़ल
हमने इंसाँ में जो ज़हर देखा ।
साँप को उससे बेख़बर देखा ।
हमने इँसाँ में वो ज़हर देखा ।
साँप पर हो गया असर देखा ।
एक बच्चे से डर गया था जो,
साँप का ऐंसा पूरा घर देखा ।
ऊँचे महलों में, ऊँचे लोगों में,
जाने क्या-क्या इधर-उधर देखा ?
ख़ार भी कीमती लगे मुझको,
फूल की तरहा जो बिखर देखा ।
नोच लेता है माँस जो पूरा,
आदमी में भी जानवर देखा ।
थाह मिलती नहीं मेरे मन की,
डूबकर और तैरकर देखा ।
जिनने पैरों से नाप ली दुनिया,
उनके हाथों को भी सिफ़र देखा ।
सिलसिले जीत के लगे खुलने,
ज़ीस्त को जब भी हारकर देखा ।
जो गटागट पिए हलाहल को,
हमने ऐंसा बड़ा जिगर देखा ।
—— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।