ग़ज़ल
रात में भी ज़रा जगा कीजे ।
सुब्ह उठके उसे पढ़ा कीजे ।
खेल, मैदाँ में खेलना, लेकिन
थोड़ी घाटी कभी चढ़ा कीजे ।
भाव उसके ज़रा समझ,पढ़ के,
शे’र लफ़्जों में फिर कहा कीजे ।
हो रही दिल में ख़ूबसूरत, जो
वारदात – ए – मुलाहिज़ा कीजे ।
फूल,फल से भरा रहेगा दिल,
शाख जैसे भी तो झुका कीजे ।
०००
—- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।