ग़ज़ल
‘रातभर’
ख़्वाब आँखों को दिखा हमको जगाया रातभर।
नूर चितवन का दिखा हमको सताया रातभर।
ज़ुल्फ़ से रुख ढ़ाँक कर क्यों आपने पर्दा किया
शबनमी घूँघट गिरा हमको लुभाया रातभर।
चूमकर आगोश में ले आप महकाते रहे
मखमली अहसास फिर हमको दिलाया रातभर।
चाँदनी सी प्रीत रेशम सोमरस छलका रही
जाम अधरों से लगा हमको पिलाया रातभर।
उठ रहे अरमान ‘रजनी’ आपने घायल किया
हुस्न का जलवा लुटा हमको जलाया रातभर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर