ग़ज़ल
विषय-“दिल्लगी”
काफ़िया-इल
रदीफ़-नहीं समझा
वज्न-1222 1222 1222 1222
मुहब्बत आजमाती है हमें क़ाबिल नहीं समझा।
लुटाए ग़म दिवाने ने हमें संगदिल नहीं समझा।
कभी गज़रा लगा मेरी नहीं जुल्फें सँवारी हैं
बसा दी गैर की दुनिया हमें क़ाबिल नहीं समझा।
दिले धड़कन बना उसको सजाए गीत अधरों पर
ख़ुदा का शुक्र है उसने हमें महफ़िल नहीं समझा।
न पूछो यार सरहद प्यार की कितनी रुहानी है
किया घायल हज़ारों को हमें क़ातिल नहीं समझा।
डुबो दी प्यार की कश्ती मगर पतवार ना थामी
फ़ँसे मझदार में जाकर हमें साहिल नहीं समझा।
न समझे थे न समझेंगे मुहब्बत को कभी मेरी
चलाए तीर नश्तर से हमें हासिल नहीं समझा।
बरस बीते उन्हें ‘रजनी’ नहीं पैगाम आया है
लगा दीं पाँव में बेड़ी हमें मंज़िल नहीं समझा।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर