ग़ज़ल
खिले थे ख्वाब जो दिल के बगीचे से ।
करीने से वो बिखराए गए हैं ।
मुझ रहगुजर को ये गुमाँ न था,
शूल राहों में बिखराये गए हैं |
बने हैं दोस्त जो दुश्मन हमारे,
ये सारे लोग उकसाये गये हैं।
हमीं ने ही जमाने को संभाला
हमीं भुलाये पाये गये हैं।
लिवासे मुखलिसी ,पहनाये गये हैं
शौरत से ये महकाये गये हैं|
रखें थे सदा ही अज़ीज़ सम्भाले
करीने से ओ बिखराए गए हैं ||
रेखा मोहन