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2 Jan 2024 · 1 min read

ग़ज़ल

यहाँ हर शख़्स है अपना तुम्हारा
क्या मैं कुछ भी नहीं लगता तुम्हारा

मैं अपनी आँखें कैसे दान कर दूँ
मेरी आँखों में है सपना तुम्हारा

यहाँ से रास्ते अपने अलग हैं
यहीं तक साथ था मेरा तुम्हारा

गिरी हैं मुझपे इतनी बिजलियाँ जो
इशारा किसका था अच्छा तुम्हारा

मेरे परदेस से आने से पहले
किसी से हो गया रिश्ता तुम्हारा

किसी ने ये ख़बर भी दी थी मुझको
कि सचमुच प्यार था सच्चा तुम्हारा

किसी के इश्क़ ने ज़िन्दा रखा है
नहीं तो ‘नूर’ क्या होता तुम्हारा

✍️जितेन्द्र कुमार ‘नूर’
असिस्टेंट प्रोफेसर
डी० ए० वी० पी० जी० कॉलेज
आज़मगढ़

1 Like · 236 Views

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