ग़ज़ल
यहाँ हर शख़्स है अपना तुम्हारा
क्या मैं कुछ भी नहीं लगता तुम्हारा
मैं अपनी आँखें कैसे दान कर दूँ
मेरी आँखों में है सपना तुम्हारा
यहाँ से रास्ते अपने अलग हैं
यहीं तक साथ था मेरा तुम्हारा
गिरी हैं मुझपे इतनी बिजलियाँ जो
इशारा किसका था अच्छा तुम्हारा
मेरे परदेस से आने से पहले
किसी से हो गया रिश्ता तुम्हारा
किसी ने ये ख़बर भी दी थी मुझको
कि सचमुच प्यार था सच्चा तुम्हारा
किसी के इश्क़ ने ज़िन्दा रखा है
नहीं तो ‘नूर’ क्या होता तुम्हारा
✍️जितेन्द्र कुमार ‘नूर’
असिस्टेंट प्रोफेसर
डी० ए० वी० पी० जी० कॉलेज
आज़मगढ़