*ग़ज़ल*
मेरा ये रब्त है पगले कि फ़ितरत जान लेता हूँ
हरादूँ हार को हँसकर अगर मैं ठान लेता हूँ/1
कोई सूरत नहीं ऐसी मुझे छल से हरा दे जो
सुनो मैं आइना हूँ शक्ल हर पहचान लेता हूँ/2
बसा जो रूह में मेरी भुला उसको नहीं सकता
उसे दिल की हसीं मंज़िल क़सम से मान लेता हूँ/3
करूँ ऐसा ज़ुदा सबसे तभी तारीफ़ पाऊँगा
तस्व्वुर ये हिज़ाबों से परे कर ध्यान लेता हूँ/4
गुलाबी लब उसे प्यारे सुना मैंने यही सोचा
बहारों से मुहब्बत कर उन्हीं की शान लेता हूँ/5
बड़ा भोला बड़ा सज्जन हूँ दीवाना मगर ऐसा
ग़मों को चीरकर मैं छीन हर मुस्क़ान लेता हूँ/6
मुझे ‘प्रीतम’ कहे समझे लगे मुझको वही प्यारा
नहीं मस्क़ा छली तारीफ़ बद अरमान लेता हूँ /7
आर. एस. ‘प्रीतम’
शब्दार्थ- रब्त-अभ्यास, हिज़ाब-पर्दा