(ग़ज़ल) तेरा साथ ही जब मयस्सर नहीं
तेरा साथ ही जब मयस्सर नहीं
ये मुक़द्दर तो कोई मुक़द्दर नहीं
हर किसी को यहाँ बस यही रंज है
पाँव जितने मेरे उतनी चादर नहीं
कैसे हासिल सभी को तेरा प्यार हो
उँगलियाँ हाथ की सब बराबर नहीं
तुम गये तो ये अहसास हमको हुआ
इस जुदाई से बढ़कर सितमगर नहीं
उससे कोई मुहब्बत नहीं है मुझे
मैं कहूँगा मगर उसको छूकर नहीं
रंग, शबनम, कली, फूल, ख़ुशबू, सबा
शय जहाँ में कोई तुझसे बढ़कर नहीं
ज़िन्दगी में अँधेरे अगर आ घिरें
तब दिया चाहिए, कोई साग़र नहीं
क़द्र जो एक की ही नहीं कर सका
उसको हासिल भी होनी बहत्तर नहीं
पूछते हैं वो ‘माहिर’ भला कौन है
अदना सा आदमी है क़लन्दर नहीं
प्रदीप ‘माहिर’
रामपुर (उ0 प्र0)