#ग़ज़ल-
#ग़ज़ल-
■ उस परिंदे की प्यास काफ़ी थी…।।
【प्रणय प्रभात】
● रूह पारो के पास काफ़ी थी।
ज़िंदगी देवदास काफ़ी थी।।
● रात जो अनमनी थी पहले से।
रात कल भी उदास काफ़ी थी।।
● आंख से जो बहा वो खारा था।
दिल में माना मिठास काफ़ी थी।।
● डालता था घड़े में जो कंकर।
उस परिंदे की प्यास काफ़ी थी।।
● बच के आई थी कल अंधेरों से।
रोशनी बदहवास काफ़ी थी।।
● एक आंचल की छांव जीत गई।
धूप यूं आसपास काफ़ी थी।।
● लोग क्यूं भूख से मरे होंगे?
चार-सू नर्म घास काफ़ी थी।।
● किस तरह हाशिए पे जा बैठी।
एक हस्ती जो ख़ास काफ़ी थी।।
● हादसे क्या बिगाड़ते इसका।
ज़िंदगी ग़म-शनास काफ़ी थी।।
● ये अलग बात खिल नहीं पाई।
इक कली महवे-यास काफ़ी थी।।
★संपादक/न्यूज़&व्यूज़★
श्योपुर (मध्यप्रदेश)