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20 Jun 2018 · 1 min read

ग़ज़ल

काफ़िया-ई
रदीफ़-है
बह्र-1222 1222 122

“अधूरे ख़्वाब”

अधर पे प्यास नयनों में नमी है।
अधूरे ख़्वाब जीवन में कमी है।

सदायें दे रही हैं धड़कनें भी
नहीं बरसात अश्कों की थमी है।

मुहोब्बत चाहकर भी कर न पाऊँ
तुम्हारी याद साँसों में बसी है।

तमन्ना पूछती है हाल दिलबर
छिपाता ग़म रुलाती बेबसी है।

लगा पहरा लबों पे आज बैठे
हमारी उम्र आँखों में कटी है।

तुम्हारी बेरुख़ी हम सह न पाएँ
लगे अब बेवफ़ा सी ज़िंदगी है।

ज़माना पूछता है आज ‘रजनी’
कहो, आवाज़ किस ग़म से दबी है।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज,वाराणसी।(उ.प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

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