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10 Jun 2023 · 1 min read

ग़ज़ल 5

ज़मीं पर आसमाँ से आ गिरा हूँ
नदी में डूबता ही जा रहा हूँ

बताए कोई तो ताबीर इनकी
मैं ऐसे ख़्वाब अक्सर देखता हूँ

मैं पहले था मैं आगे भी रहूँगा
मुसलसल वक़्त का वो सिलसिला हूँ

वही दिन रात मुझसे लड़ रहा है
मैं जिसके वास्ते जग से लड़ा हूँ

मुहब्बत कब इबादत से अलग है
ख़ुदा का अक्स तुझमें देखता हूँ

कलम मुझको कभी छूती कहाँ है
मैं पन्ने का अछूता हाशिया हूँ

मुझे लफ़्ज़ों से कमतर मत समझना
मैं उनके दरमियाँ का फासला हूँ

मैं इस्तिक़बाल करता हूँ सभी का
न मंदिर हूँ न मस्जिद, मय-कदा हूँ

‘शिखा’ कब रौशनी मुझको मिलेगी
चराग़ों के तले का दायरा हूँ

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