ग़ज़ल
ग़ज़ल
दिल अगर मचले तो जज़्बात लिखने लगती हूँ
आँख रोती हैं तो आघात लिखने लगती हूँ
रोज़ दिखलाती है जादूगरी क़लम मेरी
चंद अल्फ़ाज़ में हालात लिखने लगती हूँ
दर्द को लिखती हूँ मैं अपना मुक़द्दर लोगों
ग़म को दुनिया की मैं सौगात लिखने लगती हूँ
भूल जाती हूँ हरइक शख़्स का गुनाह कभी
जि़द पे आती हूँ तो हर बात लिखने लगती हूँ
हिज्र में याद तेरी भूले से आ जाये तो
तेरे संग बीते जो लम्हात लिखने लगती हूँ
इस क़दर टूट चुकी हूँ मैं ग़मे-दुनिया से
दिन को अक्सर मैं ‘निधि’ रात लिखने लगती हूँ