ग़ज़ल
आँखों का भी मौसम रोज बदलता है
देख ज़माना इक दूजे को चलता है
बंजर कही, कहीं हरियाली होती है
मन का बादल जैसे जहाँ पिघलता है
लोग आईना एक दूजे के होते हैं
सच जो देखे आगे वहीं निकलता है
ख़ुद की क़ीमत जो पहचाने इंसा वो
कंचन के साँचे में इक दिन ढ़लता है
वहीं अंधेरा दूर करे इस दुनिया का
बिना स्वार्थ जो दीपक जैसा जलता है
भाँति -भाँति के पेड़ बाग में होते हैं
मगर वही भाता है जो कि फलता है
कभी नही सुख पाता है वो जीवन में
जो अपनों को ‘महज़’ झूठ से छलता है