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24 Nov 2022 · 1 min read

ग़ज़ल

मुफ़लिसी/ग़रीबी/
ग़ज़ल

मुफ़लिसी दिन भी क्या दिखाती है
दूर अपनों से ले के जाती है

रूठ जाते हैं सब सगे अपने
दोस्ती भी तो आजमाती है

दिल का टुकड़ा हो आँख का तारा
दूर उसको भी ये कराती है

बाप बेटे की याद में रोये
माँ की ममता भी छटपटाती है

चन्द सिक्कों पे तोलती रिश्ते
मोल ये खूँन का लगाती है

सुनी लगती कलाई भाई की
अब तो राखी न घर पे आती है

जिसको रखना था ज़ख़्म पर मरहम
तंज़ के तीर वो चलाती है

यूँ किसी को न दे ख़ुदा ग़ुरबत
उम्र भर ये फ़क़त रुलाती है

मुफ़लिसी बदनसीबी है प्रीतम
मौत भी दूर से चिढ़ाती है

प्रीतम श्रावस्तवी

Language: Hindi
73 Views
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