ग़ज़ल
ग़ज़ल
बह्र नं 16
2212 2212 2 212 2212
बाकी अभी भी जान है काफ़ी नहीं है यह सज़ा।
दिलवर मिरा नाराज़ है आया नहीं उसको मज़ा।
उसकी खुशी के सामने यह ज़िंदगी बेकार है।
गर वो कहे ज़िंदा रखो, गर वो कहे दे दो कज़ा।
वो आशना है, महबूब है, वो है हबीब भी मिरा।
मंज़ूर है वह सब मुझे जिसमें छिपी उसकी रज़ा।
होगा नहीं वो पास वक्ते रुखसती बाखु़दा।
सब को पता है फ़ोन पर ही भेज देगा वह अज़ा।
मुंसिफ़ बने इंसाफ़ दे, फांसी मुझे या जेल दे।
पहले बता दे साफ़ लफ़्ज़ों में मुझे मेरी ख़ता।
बाकी अभी भी जान है काफ़ी नहीं है यह सज़ा।
दिलवर मिरा नाराज़ है आया नहीं उसको मज़ा।
लेखक: अभिलाज
मुंबई।