ग़ज़ल
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ग़ज़ल
मैं जब तेरे मुक़ाबिल देखता हूँ
यक़ीनन ख़ुद को बातिल* देखता हूँ ।
जो मज़हब के मसाइल देखता हूँ
पढ़े लिक्खे भी जाहिल देखता हूँ ।
भँवर में डूब जाना तय है मेरा
मगर फिर भी मैं साहिल देखता हूँ ।
जरासीमों को जड़ से ख़त्म कर दे
नहीं ऐसा फिनाइल देखता हूँ ।
जमा कर कर के रक्खी थीं उमीदें
हुआ कुछ भी न हासिल देखता हूँ ।
– अखिलेश वर्मा
*बातिल – ग़लत , बेकार