ग़ज़ल
काफ़िया-आते
रदी़फ-रहे
वज़्न-212 212 212 212
? ग़ज़ल ?
वक्त के हाथ हम बेचे जाते रहे।
इस तरह साँस अपनी चलाते रहे।
रोज होता रहा कत्ल जज्बात का,
ख्वाब आँखों में फिर भी सजाते रहे।
काट वहशी ने डाला है मासूम को,
लोग अफसोस ही बस जताते रहे।
मिल न पाया सहारा टिकी छत से जब,
लोग टूटी छतें आजमाते रहे।
दौर कैसा ये आया सखी’ देख ले,
जीभ के पैर ही सब चलाते रहे।
✍हेमा तिवारी भट्ट✍