ग़ज़ल
सुर्ख़ी ए अख़बार है वो नामवर ख़तरे में है।
मार क़ुदरत की है जो फ़ौक़-उल-बशर ख़तरे में है।
कोई भी मेहफ़ूज़ इस शहर ए सियासत में नहीं।
ऐसा लगता है कि अब तो हर बशर ख़तरे में है।
अब तो ख़तरे में गुज़रते हैं हमारे रात दिन।
सुब्ह ख़तरे में हमारी दोपहर ख़तरे में है।
जो उगाता था चमन में रोज़ इक फ़ित्ना नया।
ज़ुल्म जो ढाता था अब वो फ़ित्नागर ख़तरे में है।
उस को ख़तरे का नहीं एहसास, मुझको है पता।
राह में जो चल रहा है बे-ख़तर ख़तरे में है।
ऐसे आलम में सफ़र करना कोई आसाँ नहीं।
राहज़न मेहफ़ूज़ है और राहबर ख़तरे में है।
हर तरफ़ इक ख़ौफ़ तारी है चमन में अब ‘क़मर’।
हर शजर सहमा हुआ है हर शजर ख़तरे में है।
जावेद क़मर फ़िरोज़ाबादी