ग़ज़ल
ग़ज़ल
हसनैन आक़िब
जिसे तुम देखना चाहो, ये वो मंज़र नहीं लगता।
तुम्हारे दर की चौखट से हमारा सर नहीं लगता॥
जो तुम हो तो दर-ओ-दीवार के चेहरों पे रौनक़ है
नहीं जो तुम तो फिर मुझ को ये घर भी घर नहीं लगता॥
कहां आराम लिक्खा है मेरी जान, अपनी क़िस्मत में
कहीं कमरा नहीं मिलता, कभी बिस्तर नहीं लगता॥
ये सोचा था मिलोगे तुम तो भर लूँगा मैं बांहों में
थी प्रतीक्षा मुझे जिस की ये वो अवसर नहीं लगता ॥
महीने भी वही, दिन भी, वही हालात-ए-दुनिया हैं
गुज़शता साल से ये साल भी बेहतर नहीं लगता॥