ग़ज़ल
काफ़िया-आया
रदीफ़-जाए
चलो मुकदर को फिर से यूं आज़माया जाए।
खुद की काबिलियत पर गौर फ़रमाया जाए।
वो पन्ने जिन पर कुछ लिख न पाए थे इक रोज़;
उनको तुम्हारे ख़त के साथ जल में बहाया जाए।
यूं तो बाकी तेरी अब कोई निशानी नहीं मेरे पास;
ख्वाबों में भी क्यों तुझको फिर यूं बुलाया जाए।
जाने क्यों लगता है इक रोज़ मुलाकात होगी अपनी;
मुस्कुराता हूं क्यों हाल अपना तुझको बताया जाए।
मैं खामोशी से चला जाऊंगा शहर से तेरे बहुत दूर;
शर्त ये है फिर न मुझ जैसे आशिक को सताया जाए।
कामनी गुप्ता***
जम्मू !