ग़ज़ल
मचलती हसरतें
1222 1222 1222 1222
करें कातिल ज़माने को नज़र में धार होती है।
अदावट ही मुहब्बत का यहाँ आधार होती है।
सुनाने जब लगे जलसे में आकर वो ग़ज़ल अपनी
तरसती आरज़ू देखी बड़ी लाचार होती है।
बहुत बेचैन थे अरमां लगाने को गले उनको
भुला बैठे कि महफ़िल तो सदा गुलज़ार होती है।
मचलती हसरतों को जो दबा दे ख़्वाब में आकर
किसी पाज़ेब में इतनी कहाँ झंकार होती है।
तुम्हें बनकर दिखाएँगे यहाँ हम मील का पत्थर
चुनौती दे रहे तुमको अगर स्वीकार होती है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’