ग़ज़ल
‘ज़िंदगी’
वक्त का दस्तूर कैसा ज़िंदगी।
चल बता अपना इरादा ज़िंदगी।
व्याप्त नफ़रत है दिलों में इस कदर
टूटता घर-बार पाया ज़िंदगी।
बेरहम रिश्ते यहाँ पलते रहे
पेट ने पापी बनाया ज़िंदगी।
प्रेम में सौगात जख़्मों की मिली
राह उल्फ़त ने रुलाया ज़िंदगी।
राख अरमां हो गए कब तक सहूँ
आशियां खुद का जलाया ज़िंदगी।
हौसलों को आज तक ज़िंदा रखा
अब नहीं होता गँवारा ज़िंदगी।
मौत ‘रजनी’ माँगती है ऐ खुदा!
हो गया दुश्वार जीना ज़िंदगी।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’