ग़ज़ल
भले पत्थर मुझे कह ले,मगर पत्थर नहीं हूं मैं।
लगे जो पीठ पे आकर तिरे खंजर नहीं हूं मैं।।
जहां समझा रखा मुझको जहां चाहा वहां फेंका।
किसी मयकश के हाथो का कोई साग़र नहीं हूं मैं।।
किसी की बेवफाई ने किया ऐसा मुझे वर्ना।
जनम से तो मेरे यारो कभी बंजर नहीं हूं मैं।।
इन्हे हक है जिसे चाहें मुकद्दर में रखें मेरे।
मेरी तालीम है मां बाप से बाहर नहीं हूं मैं।।
झगड़ते हो भला क्यों तुम नहीं कुछ भी तुम्हारा है।
मुसाफ़िर की तरह ठहरो किसी का घर नहीं हूं मैं।।
गोपाल पाठक “कृष्णा”
बरेली,उप्र