ग़ज़ल
——-ग़ज़ल——
देखिए रंग ये मौसम के सुहाने निकले
उजड़े गुलशन में कली फूल खिलाने निकले
देश के बनने बिगड़ने से उन्हें क्या मतलब
लोग हम सबको जो आपस में लड़ाने निकले
जिनके हाथों में था गुलशन का ये मुस्क़बिल
बस वही लोग इसे आज मिटाने निकले
बारहा जिसने कुरेदा है मेरे ज़ख़्मों को
उनके हम ज़ख़्म पे मरहम ये लगाने निकले
प्यार अख़लाक न हो दर्द न समझें तो फिर
कौन सी दुनिया है हम जिसको बसाने निकले
आज के दौर में ऐसा भी है देखा मंज़र
आदमी आदमी को लगता है खाने निकले
मेरे आ जाने से आई थी यहाँ पर रौनक़
आज “प्रीतम” को वो महफ़िल से भगाने निकले
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)