ग़ज़ल
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हम किस तरह चलते रहे, कदमों को भी है खबर नहीं।
किसके लिए है तड़प मेरी, मुझे कोई आता नज़र नहीं।
गुमनामियों में गुज़र रहा, है फ़कीर दिल का ये दौर है
कब रात हो और कब सहर, बिन ख्वाब तेरे बसर नहीं ।
हम सरहदों के सिपाह हैं, न डरा सके हमें मौत भी
हम मौज तूफां के सामने, हैं किनारे की कोई लहर नहीं।
ग़म के निशां कभी लौटकर, चले जायगे तुम देखना
वह रात देखी न आज तक, बनी जिसकी कोई सहर नहीं।
मुझको दिया वह जख्म जो, न भरेगा आखिरी सांस तक
हम आपके हैं पराये न, अपनों पे करना कहर नहीं।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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