ग़ज़ल
मुझे ऐसा गुमां क्यों हो रहा है
कहीं ईमान दिल का खो रहा है।
चलो सहरा को हम कर दें खियाबां
कि सूखा बाग भी अब रो रहा है।
किया होता न अपनों से बिगाड़ा
कि अब अफसोस कैसे हो रहा है।
बिछेंगी राह में उसके न कलियाँ
कि जो खेतों में कांटे बो रहा है।
सिपाही देख तेरी ही बदौलत
सुकूं से मुल्क सारा सो रहा है।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
©