ग़ज़ल
ग़ज़ल
लुटा दी लाख अत्फ़ें रब ने दुनिया को सजाने में
बड़ी ही नेमतें बिखरी हैं कुदरत के खज़ाने में।
नहीं आसां यहाँ हर शख्स की हो दूर रुसवाई
पड़ें हैं पांव में छाले अजी दुनिया निभाने में।
कभी जब दिल्लगी बनने लगे दिल की लगी तो फिर
बड़ा आता मज़ा है यार रूठे को मनाने में।
विदा होने से पहले हो मेरा अहसास कुछ ऐसा
कि बरसें फूल अश्कों के नज़र से मेरे जाने में।
गया वो दौर अब इंसानियत का और ईमां का
कई घर हो गए बर्बाद खुद्दारी बचाने में।
बरसता झूमता सावन सुहाना साथ हो तेरा
मज़ा कुछ और आता है अजी तब गुनगुनाने में।
कभी तुम पोंछकर तो देखना आँसू ग़रीबों के
कि मिलता है खुदा उनके ज़रा से मुस्कुराने में।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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