ग़ज़ल
——ग़ज़ल—-
जाम पीने दे मुझे आँखों के पैमानों से
ऐसी बादा न मिलेगी किसी मैख़ानों से
इश्क़ में दर्द है तन्हाई है रुसवाई भी
ग़र यक़ी हो न तो ये पूछ लो दीवानों से
क़तर-ए-आब को तरसा था कोई सहरा में
जुल्म ये ढाया गया शहर के धनवानों से
आज वो फूल किसी और का घर महकाए घर
जिसको पाला था कभी हमनें तो अरमानों से
दिल के गुलशन में मुहब्बत के सुमन खिलते हैं
ये तो वो शै है जो मिलती नहीं वीरानों से
माँ तेरे दू़ध का मैं क़र्ज़ चुका पाऊँ नहीं
ज़िन्दगी मेरी दबी है तेरे अहसानों से
इश्क़ में हारते हैं दिल को जो मेरे “प्रीतम”
जान भी जाएगी कह दो न ये नादानों से
प्रीतम राठौर भिनगाई