ग़ज़ल
—–ग़ज़ल—-
212-212-212-2
ज़िन्दगी यूँ बिताने लगा हूँ
ग़म में भी मुस्कुराने लगा हूँ
मौत से आशिक़ी हो गयी है
उस से नज़रें मिलाने लगा हूँ
वक़्त के हो के मैं भी मुख़ालिफ़
पाँव आगे बढ़ाने लगा हूँ
रूठ जाएँ भले ही हवाएँ
मैं शमा को जलाने लगा हूँ
राख़ करके सनम के ख़तों को
मैं हवा में उड़ाने लगा हूँ
क़ब्र में जब मैं पहुँचा तो जाना
अब मैं जा के ठिकाने लगा हूँ
कौन कहता है पीकर मैं “प्रीतम”
राह में लड़खड़ाने लगा हूँ
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)