ग़ज़ल-221 2121 1221 212
मजबूरियाँ हमें तड़पाती कभी-कभी।
लाचारियाँ फितरत दिखाती कभी-कभी।।
मिलता नहीं कहीं भी मरहम सुन ले ख़ुदा,
मुफ़लिस को भूख बहुत रुलाती कभी-कभी।
उजड़ा चमन तो शाख़ पे पत्ता भी था नहीं,
ये बागबां के दिल को जलाती कभी-कभी।
रिश्ते वही रखो जो ख़ुशी से निभा सको,
टूटे दिलों की चीख डराती कभी-कभी।
हैं हौसले बुलंद तो अब डर हमें कहाँ,
जग जीतने के सपन सजाती कभी-कभी।
कोई न पाप में अब आएगा साथ ही,
करनी ख़ुद बन कर सज़ा आती कभी-कभी।
हमने उसे ही देखा है देखा नहीं ख़ुदा,
माँ की दुआ ही कष्ट मिटाती कभी-कभी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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