ग़ज़ल
हवाएं भी कहीं नदी का रुख बताती तो हैं।
खामोशी से ही मगर पैगाम दे जाती तो हैं।
तुम क्या समझोगे लहरों की इस बेचैनी को;
रह रह कर साहिल से यूंही टकराती तो हैं।
मन में उठ रहे तूफानों को अब मचलने दो;
हाले दिल ज़ुबां पे यही हलचले लाती तो हैं।
मिलना बिछड़ना तो नहीं बस में अपने मगर;
हल्की सी कौशिशें भी रंग लाती तो हैं।
खोल दो कपाट मन के जीभर के मुस्काओ तुम;
मुस्कुराहटें ज़िन्दगी को हसीन बनाती तो हैं।
कामनी गुप्ता***
जम्मू!