ग़ज़ल
———ग़ज़ल——-
शिकायत न कोई न लब पर गिले हों
मिले हम हमेशा न अब फासले हों
तुम्हारी हँसी से गुमां होता अक्सर
चमन में हजारों कली गुल खिले हों
हटा दें वो चिलमन तो लगता है ऐसे
कई चाँद जैसे गगन के तले हों
मुहब्बत में मिलना मिलाना व गाना
न इसके सिवा और कुछ मशगले हों
चले सँग मेरे कभी भी सनम तो
चरागों के चलते कई काफिले हों
मेरे बिन अकेले न रह पाएँगे वो
फ़क़त मेरे रँग में वो जैसे ढले हों
करे रश्क़ दुनिया हमें देख “प्रीतम”
पकड़ हाथ हम जब कभी भी चले हों
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)