ग़ज़ल
——-ग़ज़ल——
मुहब्बत का नग्मा सुनाया तुम्हें
रुलाया है ख़ुद को हँसाया तुम्हें
सितम भूल कर हम तुम्हारे सनम
जो रूठे कभी तो मनाया तुम्हें
न तुम ग़मज़दा हो कभी इसलिए
नहीं ज़ख़्म दिल का दिखाया तुम्हें
हर इक मोड़ पर साथ हो तुम मेरे
तो फिर कैसे कह दूँ पराया तुम्हें
कि ख़ुद सहके दुनिया के रंज़ोअलम
तमाम आफ़तों से बचाया तुम्हें
चुरा ले न तुमको ये ज़ालिम जहां
इसी से नज़र में छुपाया तुम्हें
दुआ दे रहा है मेरा दिल यही
न ग़म का मिले कोई साया तुम्हें
जुदा अब न होना ऐ “प्रीतम” कभी
बड़ी मिन्नतों से है पाया तुम्हें
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)