ग़ज़ल 2
कभी चमकते हैं मिस्ल-ए-गौहर, कभी सितारों से जल रहे हैं
ये ख़्वाब आँखों से मोती बन कर हमारे गालों पे ढल रहे हैं
गई जो दौलत तो दोस्त सारे नज़र चुरा कर निकल रहे हैं
कहाँ पलट कर वो देखते हैं मुरीद मेरे जो कल रहे हैं
सितारे उनकी हथेलियों की लकीरें रौशन करें मुसलसल
जिन्हें भरोसा करम पे है वो नसीब अपना बदल रहे हैं
यकीन है रब कभी तो देगा हमारे होठों पे मुस्कुराहट
अभी निगाहों से बर्फ़ जैसे ढलक के आँसू पिघल रहे हैं
हमारी कोशिश बहुत थी लेकिन हम एक पल को न रोक पाए
‘शिखा’ ये लम्हे भी बंद मुट्ठी से रेत जैसे फिसल रहे हैं