ग़ज़ल
गिरगिटों सी आदमी की आज फ़ितरत हो गई।
बेइमानों की जहाँ में रोज़ इज़्ज़त हो गई।
दे दग़ा महबूब ने जागीर समझा है मुझे
आज तोड़ा मौन तो मानो क़यामत हो गई।
चंद सिक्कों में बिका देखा किए हम प्यार को
अब अमीरी की मुहब्बत भी तिज़ारत हो गई।
आज रिश्ते चरमरा कर भेंट कुर्सी की चढ़े
हर गली, हर द्वार, कूचे में सियासत हो गई।
मजहबों के नाम पर बँटता रहा हर आदमी
मुल्क की सरकार से सबको शिकायत हो गई।
हर तरफ़ घुसपैठिये बैठे लगाए घात हैं
देश के ख़ातिर जवानों की शहादत हो गई।
खून के आँसू रुला ‘रजनी’ हँसे दुनिया यहाँ
ज़िंदगी की मौत से जैसे कि संगत हो गई।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर