ग़ज़ल
फ़रेबी
फ़रेबी जात का आशिक वफ़ा को आजमाता है।
जिसे कल फ़िक्र थी मेरी वही दिल को सताता है।
सनम की याद के अहसास मेरे चाँद, तारे हैं
ज़माने में कहाँ,कब, कौन अब रिश्ता निभाता है?
दिलों के दरमियां क्यों आरजू में फ़ासले आए
हमारी बेबसी के वक्त भी किस्से सुनाता है।
ग़मों की इस तपिश में जल रहा दिन-रात दिल मेरा
सुलगकर दर्द अधरों पे हमारे मुस्कुराता है।
नहीं शिकवा -शिकायत की न थीं मजबूरियाँ कोई
तुम्हारी याद का मौसम हमें हर पल रुलाता है।
दुआओं में उठे जिसकी सदा ही हाथ मेरे हैं
वही दिल भेदने को सामने नश्तर चलाता है।
लड़ो तूफ़ान से ‘रजनी’ भरोसा बाजुओं पे रख
सहारे लाख हों लेकिन किनारा छूट जाता है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी(उ.प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर