ग़ज़ल
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बारिश
हमारी माँग मोती से सजाने आ गई बारिश।
तुम्हारे नाम की चुनरी उड़ाने आ गई बारिश।
धरा बेचैन होकर देखती थी रास्ता घन का
हरित कालीन रेशम का बिछाने आ गई बारिश।
कहीं नहला दिये छाते कहीं बस्ते भिगो डाले
भरे उन्माद रग-रग में हँसाने आ गई बारिश।
हवा का तेज़ झोंका ले उड़ा यादें जवानी की
ख़तों की सुर्ख स्याही को मिटाने आ गई बारिश।
कमी खलती रही दिल को जुबां खामोश है मेरी
बना अंगार हसरत को जलाने आ गई बारिश।
लिपट कर ख़्वाहिशें दिल से फ़फ़क कर रो न पाईं थीं
तुम्हारी प्रीत का सुरमा बहाने आ गई बारिश।
अमीरों के महल की रौनकें आबाद हैं ‘रजनी’
गरीबों के टपकते घर बहाने आ गई बारिश।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर