ग़ज़ल 17
जब आए अंत जीवन का ज़माना छूट जाता है
जो पाई पाई जोड़ा था, ख़जाना छूट जाता है
मिला जो है मुक़द्दर से उसी पर सब्र तुम करना
नया पाने की चाहत में पुराना छूट जाता है
किसी से है मुहब्बत तो कभी इज़हार भी करना
ये कितनी बार होता है, जताना छूट जाता है
वो तीरंदाज़ है पक्का मगर थोड़ा है जज़्बाती
शिकारी हो के भी उसका निशाना छूट जाता है
‘शिखा’ शिद्दत से क़स्मों को निभाती है मुहब्बत में
वो वादा कर तो लेता है, निभाना छूट जाता है