ग़ज़ल
ग़ज़ल
दुश्मन से भी अब छेड़ दो तक़रार अनोखी
या तो मेरे हाथों में दो तलवार अनोखी
ख़ामोशी से कुछ बात बनेगी न यहाँ पर
कहती है क़लम भर के ये हुँकार अनोखी
दुश्मन तो करे वार मगर ये तो बताओ
कब तक करें हम लोग ये मनुहार अनोखी
धरती जो किया लाल है वीरों के लहू से
अब देख हमारी भी तू ललकार अनोखी
भूगोल बदल देंगे गुनहगारों तुम्हारा
हम को तो तेरे सिर की है दरक़ार अनोखी
तुमने जो उठाई है अभी दिल में ऐ “प्रीतम”
अब वो न कभी गिर सके दीवार अनोखी
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)