ग़ज़ल
“रस्म-उल्फ़त”
रूँठना भी है अदा उनको मनाना चाहिए।
फ़ासलों को दूर कर नज़दीक आना चाहिए।
मानकर अधिकार अपना की शिकायत आपसे
माफ़ कर उनकी ख़ता को मुस्कुराना चाहिए।
तार वीणा का समझ क्यों तंज़ कसते आप हो
टूट जाएँ ना कभी रिश्ते बचाना चाहिए।
दाग़ औरों के दिखाने से नहीं कुछ फ़ायदा
ऐब अपने भी कभी खुद को गिनाना चाहिए।
इश्क में उल्फ़त उसूलों से परे है जान कर
सादगी से आशिक़ी में दिल लगाना चाहिए।
क्यों किया जाए यहाँ हलकान दिल हर बात में
आपसी रंजिश मिटा मिलना-मिलाना चाहिए।
कौनसी किसको लगी क्या बात ‘रजनी’ भूलकर
बन फ़रिश्ता रस्म-उल्फ़त को निभाना चाहिए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी
संपादिका-साहित्य धरोहर