ग़ज़ल
“लाज़मी है”
ज़िंदगी बोझिल हुई है गुनगुनाना लाज़मी है।
रिस रहे रिश्ते यहाँ मरहम बनाना लाज़मी है।
गेसुओं से अब झरे शबनम नहीं रुख़सार पर
मोतियों से माँग धरती की सजाना लाज़मी है।
खो गईं नज़दीकियाँ जब ज़ख्म अपनों से मिले
प्यार की दरिया बहा नफ़रत मिटाना लाज़मी है।
गर्दिशे हालात ने तकदीर में लिख ठोकरें दीं
हसरतों का खून कर उल्फ़त निभाना लाज़मी है।
रात वीराने डराते काँपती परछाइयों से
भूल पतझड़ मौसमे-गुल को खिलाना लाज़मी है।
घूँट पी अपमान के हमने सही रुस्वाइयाँ हैं
फूल बन काँटे बिछे पथ के उठाना लाज़मी है।
दौर अज़माइश चला ‘रजनी’ सियासत हर तरफ़
ज्ञान की बाती लगा दीपक जलाना लाज़मी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महनूरगंज,वाराणसी
संपादिका-साहित्य धरोहर