ग़ज़ल
ग़ज़ल
हम तो ग़म में भी खुशियाँ हज़ार देख लेते हैं
हम तो सहरा में फसले बहार देख लेते हैं।
नींद आती है तुमको तो महलों में यारों
झोंपड़ी में हम कल की सहर देख लेते हैं।
खाओ तुम थालियों में रोज छप्पन भोग
हम रोटी प्याज में ही स्वाद देख लेते हैं।
तुम ही ले लो कूलर रेफ्रिजरेटर के मजे
हम तो मटके में ठंडक जनाब देख लेते हैं।
सजाओ तुम तन पे मंहगे कपड़े यारों
खुद में गुदड़ी का हम लाल देख लेते हैं।
खेलते सपूत जो तेरे मंहगे खिलौनों से
लाल हमारे धूल में फूल देख लेते हैं।
हो तुम वहांँ हम यहाँ मालिक की मर्ज़ी
उसका न्याय और रहमत भी हम देख लेते हैं।
रंजना माथुर
जयपुर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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