ग़ज़ल
ज़िन्दगी से थकी थकी हो क्या
तुम भी बे वज्ह जी रही हो क्या
देख कर तुम को खिलने लगते हैं
तुम गुलों से भी बोलती हो क्या
तुम को छू कर चमकने लगता हूँ
तुम कोई नूर की बनी हो क्या
इस क़दर जो सजी हुई हो तुम
मेरी ख़ातिर सजी हुई हो क्या
मैं तो मुरझा गया हूँ अब के बरस
तुम कहीं अब भी खिल रही हो क्या
सोचता हूँ तो सोचता यह हूँ
तुम मुझे अब भी सोचती हो क्या
आज यह शाम भीगती क्यों है
तुम कहीं छिप के रो रही हो क्या
इस की खु़शबू नहीं रही वैसी
शहर से अपने जा चुकी हो क्या