ग़ज़ल
कभी-कभी
कलियाँ भी खिलाता है बियाबां कभी-कभी
सहरा भी बना करता है खियाबां कभी-कभी।
जो हौसलों में होंगी तेरे गर बुलंदियाँ
आंधियों में भी चिराग जले हैं कभी-कभी।
है बाजुओं में दम तो भला हो सके न क्या
आता है पत्थरों से भी पानी कभी-कभी।
इख्लास मोहब्बत जो कर सके अवाम से
उगता है वो सितारा गगन में कभी-कभी।
उस का भी भला करना जो बुरा मेरा करे
दिल से निकलती मेरे दुआ ये कभी-कभी।
कल को है देखा किसने मौज आज तो करें
उठता है दिल में मेरे ख्याल ये कभी-कभी।
सोचा नहीं कि उससे पहले काम बन गया
होती है मुझ पे मालिक की रहमतें कभी-कभी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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