ग़ज़ल
इब्तिदा ए इश्क अब होने लगी
खुशनुमा सी जिन्दगी होने लगी।
ढूंढती नज़्रें हमेशा ही तुझे
हर इबादत बंदगी होने लगी।
शबनमी इस नूर के जलवे बड़े
तिश्नगी दीदार की होने लगी।
आहटें उनके क़दम की जो सुनी
इस खुशी में बानग़ी होने लगी।
होश न ख़ुद न तो ज़माने का रहा
इस तरह दीवानगी होने लगी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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