ग़ज़ल
ग़ज़ल
ज़िन्दगी जीने का सिलसिला तो चले
साथ ख़ुशियाँ न हों इब्तिला तो चले।
चलने का ही दूजा नाम है ज़िन्दगी
मैं अगर थक गया काफ़िला तो चले।
ऐसी भी क्या ख़ता मेरे संग तो चलो
न हो नज़दीकियांँ फ़ासिला तो चले।
इंतख़ाब क्या करें ये तो फिर सोचेंगे
खुशियाँ ना ग़म का ही दाख़िला तो चले।
ऐ ज़माने जो मैंने है अब तक किया
उसका अच्छा बुरा कुछ सिला तो चले।
रंजना माथुर
जयपुर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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